સોમવાર, 12 નવેમ્બર, 2018

लाल पहाड़

मित्रो,
मै पहली बार आप लोगो के लिए हिन्दी मे मेरा उपन्यास ब्लॉग पर रखने जा रहा हु। हो शकता है की भाषाकीय गलतिया ज्यादा हो, मेरी गलतिया मुझे जरूर बताइएगा ताकि मे इसे अगले ब्लॉग मे सुधार शकु।

लाल पहाड़


संजय और निरथे तो सिर्फ दो मित्र ही पर ऐसे रहते थे जैसे दो जिस्म और एक जान।  निरके लिए संजय के मुख से निकला हर एक लब्ज़ भगवान की आज्ञा के समान रहता था।  संजय की कही किसी भी बात को निरव कभी भी टालता नहीं था।  इन जिगर जान मित्रों से सब लोग डर के रहते थे, उसमें भी खास तौर पर लोग निरसे ज्यादा डरते थे, कहीं गलती से भी उस को पता चल गया की उन्होने संजय के खिलाफ कुछ भी कहा है तो नीरव उसकी हड्डी पसली एक कर देता था। सब लोगो पर नीरव का इतना खौफ रहता था की कोई संजय से मजाक भी नहीं कर सकता था  वैसे तो निरव हंमेशा शांत रहता था, उसे अपने मान सम्मान की कुछ भी पड़ी नहीं थी, वह तो बस अपनी मस्ती में रहता था।  निरके लिए यह कहा जाता था की जिसकी कोई आवाज ना हो वह निर, इतना शांत रहनेवाला नीरव, किसी को किसी भी प्रकार से तकलीफ न हो इसका ख्याल रखने वाला निरजब भी संजय के खिलाफ कुछ सुन लेता तो आग उगलता गोला बन जाता, वैसे भी निरव के अंदर ठाकुर खानदान का गर्म खून बहता था। वह एक राजवी कूल का वारिस था।

दूसरी ओर संजय एक धीर -गंभीर युवक था। हर बात को वो अपनी समझ के पलड़े मे तोलता उसके बाद ही कोई निर्णय लेता था।  उसके खिलाफ कोई कुछ भी बोले वो हंस के टाल देता, जरूरत पड़ने पर ही वह किसी को कडक शब्दों में जवाब देता।  बातचीत में तो उसे कोई हरा नहीं सकता था,  वो किसी के भी साथ बिना कारण को लड़ाई झगड़ा करता न था।  ऐसे संजय की एक कमजोरी थी उसकी मुंह बोली बहन लक्ष्मी।  संजय लक्ष्मी को खूब चाहता था, वह लक्ष्मी की हर एक इच्छा पूरी करने का प्रयत्न करता था चाहे उसे पसंद हो या ना हो पर लक्ष्मी की इच्छा पूरी करना संजय का धर्म रहता था और इसके लिए वह हंमेशा तैयार रहता था।

और लक्ष्मी, वह तो  स्वर्ग लोक से पृथ्वी पर रास्ता भूली हुई एक अप्सरा थी । हमेशा नाचती कुदती चहकती रहती थी।  जो कोई भी उसे देखे वह उसका दीवाना हो जाता था।  उसके जैसा रूप तो किसी ने कभी देखा नहीं था।  उसका जिस्म ऊंचा और भरा हुआ, पूर्णरूप से खिला हुआ था, उसका रंग स्फटिक जैसा सफेद और शुद्ध था, उसके चेहरे की रेखाएं उसके होंठ और नाक के मरोड़ यह सब अप्रतिम था, ऐसे लगता था जैसे कोई अद्भुत शिल्पी की देवी कला का परिणाम हो।  लक्ष्मी को देखकर ऐसा ही लगता था कि जसे विधाताने अनुपम सौन्दर्य की रसमूर्ति की रचना की है। ऐसी स्वर्ग की अप्सरा जैसी लक्ष्मी उसका दिल नीरव को दे चुकी थी और संजयने भी अपनी बहन की पसंद को मंजूरी दे दी थी।

किसी भी तरह से इन लोगों का कोई मेल नहीं था।  एक में थी बनिए की बुद्धिमता तो दूसरे मे था ठाकुरों का गरम ख़ून। एक अमनपुर में रहता था तो दूसरा नैनपुर मे। हर बात में दोनों अलग थे फिर भी दोनों जिगर जान मित्र थे। एक दूसरे के बिना उन्हे अच्छा नहीं लगता था। पहले तो इन लोगों में कोई दोस्ती नहीं थी,  एक दूसरे को जानते भी नहीं थे।  यह दोस्ती लक्ष्मी की वजह से हुई थी जिसे संजय अपनी बहन मानता था और वो अपना दिल नीरव को दे चुकी थी।  

संजय अमपुर के सेठ रसिकलाल शाह का पुत्र था तो निरनैनपुर के जुल्मी ठाकुर भैरवसिंह का इकलौता वारिस।  दोनों गांव के बीच में था लाल पहाड़ और उसका घना जंगल। लाल पहाड़ की ऊंचाई से बारिश के बादल टकराते थे, वर्षा रानी यहां झूम के बरसती थी। एक छोटा सा झरना भी लाल पहाड़ पर से निकलता था जिसे नैनपुर के लोग रोहिणी नदी के नाम से जानते थे। रोहिणी नदी नैनपुर की तरफ बहती थी तो अमपुर के हिस्से में एक खूबसूरत तालाब था।  नदी और तालाब में पूरे साल पानी रहता था और सिंचाई से यहां के लोग अपनी खेती में अच्छा सा उत्पादन लेते थे।  शहर यहां से काफी दूर था इसलिए यह लोग शहर की सब सुविधाओं से वंचित थे लेकिन जहा लाल पहाड़ की हद खत्म होती थी वहा से अलग-अलग शहरो को जोड़ता एक रास्ट्रीय हाईवे निकलता था। इसी हाईवे से निकलती एक सड़क नैनपुर में जाती थी तो एक सड़क अमरपुर में।  इसी सड़क से इन दोनों गांव का सारा खेत उत्पादन शहर में जाता था और भरपूर कमाई होती थी, इसी कमाई से ये गाँव सुखी थे समृद्ध थे।

लाल पहाड़ और घने जंगल के कारण आज तक अमनपुर और नैनपुर के बीच में किसी भी प्रकार का  आदान-प्रदान संभव न हुआ था।  ऐसा लगता था जैसे विधाता इस पहाड़ को बीच में रख कर दोनो गावों को एक दूसरे से दूर रहने के लिए मजबूर कर दिया था।  वैसे अगर कुदरत रचना नहीं होती तो भी इन दोनों गांवो के बीच में किसी भी प्रकार का आदान-प्रदान संभव नहीं था क्योंकि अमनपुर के विख्यात पंडित जगन्नाथ जी के पुरखो ने नैनपुर का पानी का त्याग किया था, जो कभी नैनपुर में राजपुरोहित हुआ करते थे। अमनपुर के निवासी पंडित जगन्नाथ जी की खूब इज्जत करते थे, इसलिए कोई भी नैनपुर के बारे मे सोचता नहीं था। इधर नैनपुर में भी यही परिस्थिति थी, वहां का राजवी परिवार किसी भी कीमत पर पंडित के परिवार से दूर रहना चाहता था, राजा की चाहत यानि सब की चाहत। एसे ही दोनों गाँव नजदीक होने के बावजूद कभी नजदीकीया नहीं आई थी।
कुदरत ने अमरपुर और नैनपुर दोनों को एक जैसे ही संपत्ति दी थी लेकिन दोनो गावों के विकास मे बड़ा फर्क था। फर्क तो होना ही था क्योकि अमनपुर का पूरा संचालन शेठ रसिकलाल शाह, ठाकुर त्रिभुवनसिंह और पंडित जगन्नाथ जैसे परोपकारी समाजसेवी सज्जन लोग करते थे। इन सज्जनों की सेवा से अमनपुर दिन दुगनी रात चोगुनी तरक्की करता था।  

जबकि नैनपुर का भाग्य लिखते वक्त विधाता ने थोड़ी कसर छोड़ दी थी, एक श्राप दे दिया था नैनपुर को, इस श्राप का नाम था पीली कोठी। शहर से दूर होने के कारण यहां कोई पुलिस चौकी नहीं थी ओर शहर की पुलिस भी यहाँ आती नहीं थी। नैनपुर के किसी भी प्रकार के लड़ाई झघड़ो का न्याय सिर्फ और सिर्फ पीली कोठी मे ही होता था। और यही पीली कोठी नैनपुरवासीओ के लिए अभिशाप बन गई थी।  यहां के लोगों को अभी तक इस श्राप छुटने का कोई रास्ता नहीं मिला था।
नैनपुर का संचालन वहां के राजवी कुल के वारिस भैरवसिंह के हाथ में था।  उनकी मदद करने वाले लोग थे गुमानसिंह और वसराम।  नैनपुर मे ठाकुर भैरव सिंह आतंक का पर्याय बन चुके थे। आज़ादी के बाद राजाओं के राज तो चले गए थे लेकिन भैरव सिंह खुद को राजा ही समझते थे साथ ही नैनपुर और इससे जुड़े पूरे इलाकेको वह अपनी रियासत समझते थे। अपनी इस रियासत में हाजिर हर एक जीव को निर्जीव को अपनी मालिकी की चीज समझते थे, और उनका अपनी मर्जी से ग्रहण भी करते थे।

भैरवसिंह की कद काठी तो कदावर थी ही, उनकी बाजू में भी भरपूर बल था। वह हमेशा के नशे में धुत्त रहते थे।  लोग तो भैरवसिंह की लाल शराबी आंखों को देखकर ही डर जाते थे। उन्होंने अपने लिए अपनी हाँ मे हाँ करनेवालो की एक छोटी सी सेना तैयार कर रखी। इस सेना का सेनापति था गुमानसिंह। पूरे इलाके मे आतंक फैलाती थी ये गुमान सिंह की सेना। कौन से घर में क्या अच्छा है उसकी खबर निकालकर उसे जबरदस्ती से उठा के भैरवसिंह के चरणों में सौंप दिया जाता था। भैरवसिंह अपनी मर्जी हो तब तक वह इससे खेलते और जब जी भर जाए तो उसे उनकी को सोंप दिया जाता था। कभी कभी तो यह सेना भैरवसिंह के नाम पर खुद ही ऐयासी कर लेती थी। उनके खिलाफ जाने वाला या फिर इस गांव को छोड़कर जाने वाला हर कोई को सुख नहीं सिर्फ मौत ही मिलती थी।

गुमान सिंह जैसा ही रंगीला और कपटी था वसराम। वह गांव में जंतर-मंत्र करता था। उसने भी अपनी एक छोटी सी टोली बना रखी थी। ये टोली भी गुमान सिंह की फौज के जैसा ही काम करती थी। जंतर-मंत्र करके लोगों को अपने वश में रती थी कभी भी किसी भी तरह की बगावत को रोक देते थे ये लोग। इन दोनों आधार स्तंभों पर ही भैरवसिंह का राज चल रहा था। नशे मे धूत रहनेवाले भैरवसिंह ने एक  मजबूत और कद्दावर पठान को भी रखा था, उस का कार्य था की जिस किसी को भी पकड़कर लाया जाए उस पर कोडे बरसाना।  किस व्यक्ति को लाया गया है वह देखना काम उसका नहीं था वह तो अपनी पूरी ताकत से कोड़े बरसाता था।  जिस पर भी उसका कोड़ा पड़ता, उसकी चीख निकलती, चीख के साथ साथ शरीर की चमड़ी भी शरीर का साथ छोड़कर इस कोड़े के साथ चली आती थी और उसके जिस्म से खून बाहर आना शुरू हो जाता था। यह सब देखकर भैरवसिंह को अति प्रसन्नता होती थी।  जब कोई न मिले तो कोड़े खाने मे भैरवसिंह की पत्नी रूपा देवी और उसके बेटे निरका भी नंबर लग जाता था।  

ऐसा बिलकुल नहीं था कि दुःख की देवी ने नाईंपुर मे कायमी डेरा डाल दिया हो।, यहां धूप छांव की तरह सुख और दुःख आते जाते रहते थे। 20-25 वर्ष तक दुःख रहता तो बाकी के 20-25 वर्ष खूब सुख रहता था।  सुख के इन दिनों में नैनपुर अमपुर के साथ स्पर्धा करने लग जाता था।  पिछले कुछ सालों से दुःख की देवी नैनपुर का रास्ता भूल गई थी देवी, दुःख की देवी को नैनपुर से दूर रखती थी पीली कोठी। एक वरदान बन गई थी पीली कोठी नैनपुरवासियो के लिए। और उसके कर्ता हार्ता थे ठाकुर सूबेदार सिंह।  ठाकुर सूबेदार सिंह के पिता का अकाल अवसान हुआ था इसलिए ठाकुर सूबेदार सिंह से की परवरिश उनके दादा ने ही की थी और इसी परवरिश के फलस्वरूप दादा जैसे ही परोपकारी और प्रजावत्सल बन गए थे वो। जब तक ठाकुर सूबेदार सिंह और उनके दादाजी पीली कोठी के कर्ता हार्ता रहे तब तक नैनपुर दुःख की देवी ने नैनपुर तरफ देखा  भी नहीं था। ऐसे में नेट भैरव सिंह के यहाँ जन्म हुआ निरव का।   नीरव के जन्म के बाद ठाकुर सूबेदार सिंह अपना ज्यादा वक्त अपने पोते नीरव के साथ बिताने लगे। इसलिए उन्होने अपने पुत्र पर जो लगाम खींच राखी थे वो थोड़ी कमजोर हो गई। इसका भरपूर फायदा उठाया भैरवसिंह ने। इस बीच नीरव अपने स्कूल जाना शुरू करे उससे पहले ही ठाकुर सूबेदार सिंह को इस दुनिया से विदाय लेनी पड़ी।

बस, ठाकुर सूबेदार सिंह की मृत्यु के बाद से दुःख की देवीने नैनपुर मे अपन डेरा डाल दिया। एसा लगता था जैसे इतने वर्षो का बदला वो एकसाथ लेना चाहती थी।  ठाकुर सूबेदार सिंह के कब्जे में शांत रहा भैरव लोगों के लिए काल्भाइराव बन गया। अपने पुरखोने जो भी परोपकारी कार्य किए थे उन सब पर उसने अपना मालिक ही हक थोप दिया और प्रजा को परेशान करना शुरू कर दिया।  उसे सबसे ज्यादा गुस्सा अपनी पत्नी और पुत्र पर पर आता था क्योंकि यही लोग थे जिन्होने उसे ठाकुर सूबेदार सिंह के जिंदा रहते संयम मे रहने के लिए मजबूर किया था। इसीलिए भैरवसिंह ने अपनी पत्नी और पुत्र पर अत्याचार बढ़ा दिया।  निरकी तो तालीम ही ऐसी हुई जैसे चाबी भरा हुआ कोई खिलौना।  भैरवसिंह पैरों की आवाज से ही कांपने लगता था निरव।

निरव की समझ में यह नहीं आता था की उसके पिता बाकी लोगों की तरह क्यों नहीं थे। पीली कोठीमे  हमेशा किसी न किसी का रोना या चीखे सुनाई देती थी, कोई न हो तो उसकी माँ ओर खुद को कोड़े खाने पड़ते थे और साथ मे अपने पिता के ठहाके भी। एसे ही निरव बड़ा हुआ, उसका नैनपुर की पाठशाला का अभ्यास खतम हुआ साथ ही उस पर होते अत्याचार भी बढ़ गए।  पीली कोठी में निरव अपनी माता और दादी माँ के साथ रहता था। निरव हंमेशा अपने पिता से पीटने के बाद अपनी दादी माँ से शिकायत करता था। और वो ही उसके दुःख पर मरहम लगती थी। एक दिन उसने दादी माँ से पूछ ही लिया की उसके पिता इतने जालिम क्यों है?

ટિપ્પણીઓ નથી:

ટિપ્પણી પોસ્ટ કરો

પીળી કોઠી - નો લોહી તરસ્યો શયતાન : ૯. નિરવની બગાવત

પીળી કોઠી - નો લોહી તરસ્યો શયતાન : ૯ . નિરવની બગાવત મિત્રો મારી નવલકથા ને ભવ્ય પ્રતિસાદ આપવા બદલ આપ સૌ નો ખૂબ ખૂબ આભાર.   વહી ...